रविवार, 15 जनवरी 2017

इंस्टेंट नूडल हो गया है प्रेम कि एक दिन निर्धारित कर लो और उस दिन इज़हारे मोहब्बत कर दो। बाकि ३६५ दिन भले ही जूते चप्पल बजते रहे। वैश्वीकरण तथा बाज़ारीकरण लोगो की मनोदशा को मुट्ठी में बंद किये बैठा है। और सफेदी लिए हुए बालों के साथ जवान होते बेटे बेटियों के सामने माता पिता भी एक दुसरे को फूल और कार्ड दे कर अपने नवीन प्रेम को प्रदर्शित कर रहे हैं। वहीँ शहर के किसी और कोने में उन्हीं की बेटियां भी अपने वैलेंटाइन के साथ इस पावन पर्व को सेलिब्रेट कर रहीं हैं। क्या प्रेम को किसी एक निर्धारित दिन के अनुसार व्यक्त किया जा सकता है?
दुनिया वाकई बहुत तेजी से बदल रही है और प्यार करने और उसे जताने के तरीके भी। 
इंटरनेट क्रांति ने आज की पीढी को ज्यादा मुखर बना दिया है| फेसबुक ट्विटर से लेकर व्हाट्सएप जैसे एप आपको मौका दे रहे हैं कि कुछ भी मन में न रखो जो है बोल दो| 
सुना है हर जिले में एक बाल संरक्षण समिति होती है जिसका कार्य होता है उस जिले में रहने वाले गरीब तबके के , बेसहारा बच्चों के लिए कार्य करना…  शिक्षा के क्षेत्र में तथा अन्य बुनियादी सुविधाओं के मद्देनज़र कार्य योजनाएं बनाना तथा उनको कार्यान्वित करना .... आश्चर्य की बात है कि हमारे क्षेत्र में जहाँ मुझे हर जगह सड़कों पर भीख मांगते ,मजदूरी करते बच्चे दिखाई देते हैं वहां हमारे क्षेत्र के शिक्षा विभाग और बाल संरक्षण समिति के पास इन बच्चों का कोई ब्यौरा नहीं है …  वर्षा की फोटो मैने बहुत पहले भी फेसबुक पर पोस्ट की थी .... वो मेरे यहाँ आने वाले बच्चोँ के साथ पढ़ रही है.…लेकिन इसके जैसी और भी बहुत सी बच्चियाँ हैं … क्या होगा इनके भविष्य का.…??
प्रेम मुक्त करता है.... बांधता नहीं है… चाहे वो प्रेयसि का हो , माँ का, मित्र का या पत्नी का। और यदि वो बंधन में बाधता है तो वो प्रेम हो ही नहीं सकता … क्योंकि प्रेम एक विश्वास का नाम है और जहाँ विश्वास नहीं वहां प्रेम भी नहीं हो सकता। 
जीवन को सही तरह से समझना है तो ठहराव जरूरी है।  गतिशील जीवन में हम न तो स्वयं को समझ सकते हैं और न दूसरों को। हाँ यदि केवल उपलब्धियों को ही जीवन मान लें तो ठहराव संभव नहीं , और यदि उपलब्धियों से परे जीवन को जानने का प्रयास करना है तो थमना होगा , रुकना होगा। ऐसे में संभव है भीड़ में पीछे रह जाना , एकाकी हो जाना ,लेकिन उस ठहराव में ही ज्ञान होता है जीवन की सही दिशा का उसके गंतव्य का। 
सुबह फोन पर  राकेश शर्मा सर से समसामयिक विषयों पर चर्चा हुई  । इस कविता के साथ सर ने बहुत सी बातें कहीं जो मन के किसी कोने में सहेज दी हैं ,,  वास्तव में आध्यात्मिक वा ज्ञानी व्यक्तित्व के स्वामी हैं सर ,सफलता के शीर्ष पर पहुचकर भी विनम्र व सरल व्यक्तित्व, जिन्हें अभिमान छू भी नही सका, असीमित ज्ञान , तेजस्वी व्यक्तित्व। कविता सुन कर मैंने हठपूर्वक सर से निवेदन भी किया कि वे इन्हें औरों के साथ बांटें।
संबंधों का अब कोई सम्बन्ध
रहा नहीं बाकी  ,
द्वेत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
     समुद्र की लहर हूँ मैं ,
     चन्द्रमा की पूर्णिमा हूँ मैं,
     रजनीगंधा की सुगंध हूँ मैं ,
    सूर्य की अरुणिमा हूँ
    द्वैत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
वसुंधरा का प्रसाद हूँ मैं ,
फिर से प्रसाद होने को
बीज हो गया हूँ मैं ,
द्वैत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
    काल से अकाल  हो गया हूँ मैं,
   अपूर्ण से पूर्ण हो गया हूँ मैं ,
   द्वैत से अद्वैत हो गया हूँ मैं ;
जो ब्रह्माण्ड है वो मैं हूँ,
और जो मैं हूँ वो ब्रह्माण्ड है ;
अहं ब्रह्मास्मि....अहं ब्रह्मास्मि.....अहं ब्रह्मास्मि।।




आज एक मित्र से बात हो रही थी ।  उनके लगभग 40 -45 वर्षीय  रिश्तेदार को कैंसर हो गया।  वह शारीरिक रूप  से हष्ट पुष्ट और एक दम स्वस्थ थे लेकिन फिर लगभग २ महीने पहले अचानक उन्हें इस बीमारी का पता चला। मेरे मित्र कहने लगे कि यदि  वे योग व्यायाम आदि करते तो ऐसा नहीं होता।  मैंने उनसे कहा जन्म और मृत्यु तो पूर्व निश्चित होते हैं। योग और व्यायाम आदि से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता तो बढ़ाई जा  लेकिन मृत्यु को टाला नहीं जा सकता। हम सब  संसार में एक निश्चित आयु लेकर आते हैं और उसके पूरा होते ही यहाँ से कूच कर जाते हैं।  फिर मृत्यु किसी भी बहाने से आए कुछ कहा नहीं जा सकता।  हम अक्सर देखते हैं कि कैसे कभी कोई एक दम स्वस्थ व्यक्ति कम उम्र में अचानक किसी कारण से हमारे बीच से चला जाता है और कोई असाध्य बीमारी से ग्रसित व्यक्ति भी लम्बी उम्र जीता है। इसका मतलब ये नहीं कि हमें अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक नहीं रहना चाहिये बल्कि मेरा तो बस यही कहना है कि जन्म और मृत्यु मानव मन की समझ से परे होते हैं।  कुछ लोग इनके पीछे किसी कारण को ढूंढा करते हैं और मेरे जैसे भाग्यवादी लोग इन्हें पूर्वनिर्धारित मानते हैं । 
मैंने ज्यादा साहित्य नहीं पढ़ा। जो कुछ भी घर में दादाजी या पिताजी की अलमारियों से उपलब्ध हो सका बस वहीँ तक पढ़ा है। जिसमें ज्यादातर आध्यात्मिक विषयों की किताबें थीं। तो मेरे बाल मन का उसी और झुकाव बढ़ गया। इसके अलावा घर में धार्मिक, किस्से-कहानियों की, हस्तरेखा , और चिकित्सीय विज्ञान जैसे विषयों पर किताबें भी पढ़ने को मिल जातीं थीं। इसमें मैं नंदन ,चम्पक और चाचा चौधरी जैसी कॉमिक्स बुकों को शामिल नहीं कर रही हूँ क्यूंकि उस वक़्त टीवी पर केवल एकमात्र चैनल दूरदर्शन आता था और बच्चो के मनोरंजन के लिए केवल कॉमिक्स ही हुआ करती थीं। और बाद में कॉलेज में आने पर खुद अपनी रूचि के हिसाब से किताबें खरीदने लगी और पढ़ने लगी। 
ओशो के विचार आपकी आध्यात्मिक यात्रा में तो  सहायक होंगे लेकिन व्यवहारिक जीवन में नहीं,,, वो विरले ही होते हैं जो इन विचारों को साथ लेकर व्यवहारिक जीवन जी लेते हैं। 
मई के महीने की इस चिलचिलाती गर्मी में एक जगह ऐसी भी है जहाँ आप हमेशा असीम शीतलता महसूस करेंगे , बाँके बिहारी का प्रांगण …खस खस  और केवड़े की खुशबू वाले फव्वारे और बेला के फूलों की तेज़ खुशबू... मन को मोह लेने वाला वातावरण ....गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू होते ही और मई के महीने के आखिर में पड़ने  वाली पहली बारिश की फुहार … खुदबखुद हम वहां की तरफ चल देते थे… हमारी  उस जगह से जुड़ाव की एक और वजह थी कि मंदिर से दो कदम की दूरी पर ही हमारी ननिहाल थी…जब दोपहर में सब सो जाते थे तो मैं और मेरे मामा की बेटी चुपके से बाहर निकल आते। आस पास के प्राचीन मंदिरों में जाने क्या ढूँढ़ते फिरते थे … और फिर अपने ठिकाने पर पहुँच जाते थे… कुछ देर उस दुर्लभ आकर्षण वाले श्याम सलोने को निहारते फिर पूरे मंदिर का चक्कर लगाते …उन दिनों मंदिर की सेवा का कार्य गोसाईं होने के कारण हमारे ही रिश्तेदारों को मिला हुआ था… सो मंदिर के ऊपरी मंजिल के कमरों में भी दौड़भाग मचाया करते थे …मैं और मेरी बहन गले में बेला और गुलाब के फूलों की माला और माथे पर गोपीचंदन लगाये हुए गोपी बने घूमा करते …उस ज़माने में शाम को संध्या आरती के लिए पट खुलने के समय सफ़ेद तांत की सारी पहने बहुत सी बंगालन भी दिखा करती थीं … जो अब  काफी समय से नजर  नहीं आतीं…लेकिन हमारी ननिहाल में खाना बनाने से लेकर कुएं से पानी भरने आदि कार्य यह बंगालन ही करती थीं.…इनकी खासबात यह थी कि अगर गलती से भी हम इन्हें छू भर लेते थे तो ये गुस्से में कांपती हुई बांग्ला में गाली देती थीं … वृन्दावन में उस समय हर घर में एक कुंआ होता था , मैं बहन के साथ जिस के भी घर जाती पहले वहां कुआँ देखती थी … बहुत डर लगता था मुझे कुओं से … एक और जगह थी जहाँ मुझे डर लगता था और वो था नानी का पूजाघर …वहां हमारा जाना मना था …वो एक बाहर बड़ा सा हॉल था.…जिसमें हलकी रौशनी रहती थी.…जहां बड़ी बड़ी अष्टधातु की राधा कृष्ण की मूर्तियां थीं.… प्राणप्रतिष्ठित उन मूर्तियों की सेवा पूजा बड़े नियम से होती थी....पहले लोरी गाकर उन्हें जगाया जाता , फिर स्नान और श्रंगार होता फिर नज़र उतरी जाती और माखन मिश्री और मेवे का भोग  लगाया जाता … मैं इस सारी  प्रक्रिया को  चौखट पर बैठे ध्यान से देखा करती....मेरी बहन ने जब से मुझे बताया था कि पट बंद होते ही ये सारी मूर्तियां जीवित हो जाती हैं  मैं उनके पास नही जाती थीं... छुट्टियां ख़त्म होने पर भी मेरा वहां से आने का मन नही करता था … समय के साथ मेरा वहां जाना काम होता गया.… इधर मैं पढ़ाई में व्यस्त हो गई और नानी का भी देहांत हो गया …लेकिन आज भी गर्मियां होते ही मेरा मन करता है कि माँ के साथ वहां रहने जाऊं और उन यादों को दुबारा से जीउँ....

मैं अपने बच्चों से कभी यह नहीं कहती की वो मेरे जैसा बनें, वे जैसे हैं मैं उन्हें वैसे ही पसंद करती हूँ। मैं उन पर अपनी सपनो का बोझ कभी नहीं डालती । मैं चाहती  वो स्वतंत्र हो। माँ  बाप की अपेक्षाएं बच्चों पर  अतिरिक्त भार रख देती हैं जिसके उनका बौद्धिक विकास प्रभवित होता है । मैं चाहती हूँ कि वे आजाद पक्षियों की तरह अपनी कल्पनाओं के आकाश में उड़े । 
 ओ हेनरी की कहानी 'लास्ट लीफ ' ज्यादातर हम सभी ने पढ़ी है। एक कलाकार की ज्यादा गहराई में सोचने की आदत जब तक सकारात्मक हो तो वह उसे आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने में कामयाब करती है। जब एक दिन उसी कलाकार को उसका अकेलापन सालने लगता है तो उसकी ज्यादा सोचने की आदत नकारात्मक सोच हीन भावना पैदा करते भी देर नहीं लगाती। वॉशिंगटन चौक के टूटे-फ़ूटे और विचित्र, 'ग्रीनविच ग्रामनामक मोहल्ले में दुनियाभर के कलाकार आकर जमा होने लगे। 
वहीँ एक मकान की तीसरी मंजिल पर सू जौर जान्सी का स्टूडियो था। जोहंसी बिमार पड़ गयी है और निमोनिया की वजह से मर रही है। वह अपने कमरे की खिड़की के बाहर एक लता (बेल) से गिरते हुए पत्तों को देखती है और निर्णय कर लेती है कि जब अंतिम पत्ता गिरेगा तो वो मर जायेगी। तब सू ने उससे ऐसा न सोचने के लिए मना किया और उसे ऐसा सोचने से रोकने की कोशिश की।
एक बेहराम नामक बुढ़ा निराश कलाकार उनके नीचे के मकान में रहता है। वह दावा करता है कि वो एक अति उत्तम रचना का निर्माण करेगा, यद्दपि उसने कभी यह कार्य आरम्भ नहीं किया। सू उसके पास जाती है और उसे बताती है कि उसकी दोस्त निमोनिया से मर रही है और जोहंसी दावा कर रही है कि जब उसके कमरे की खिड़की के बाहर की लता का अन्तिम पत्ता गिरेगा तो वह मर जायेगी। बेहराम ने इसका मजाक उडाया और इसे उसकी मुर्खता बताया लेकिन जैसा कि वह इन दो युवा कलाकारों का रक्षक था — अतः उसने जोहंसी और लता को देखने का निर्णय किया।
रात में एक बहुत ही बुरी आँधी आती है। सू खिड़कियाँ और पर्दे बंद कर देती है और जोहंसी को सोने के लिए कहती है, सुबह, जोहंसी लता को देखना चाहती है कि सभी पत्ते गिर चुके हैं लेकिन उसे आश्चर्य होता है कि अभी भी एक पत्ता बचा हुआ है।
जब जोहंसी हैरान हुई कि वह अब भी वहीं था, तो वह हठ करती है कि यह आज गिरेगा। लेकिन ऐसा नहीं होता है और वह ना ही रात को गिरता है और न ही अगले दिन। जोहंसी को मान लेती है कि यह पत्ता उसे यह दिखाने के लिए ही वहाँ रुका हुआ है कि वह कितनी निर्बल है जो उसने मृत्यू चाहने जैसा पाप किया। उसने अपने आप को जीने के लिए पुनः तैयार किया और दिनभर में बहुत सुधार आता है।
सू बोली ," मेरी भोली बिल्ली तुझसे एक बात कहनी है। आज सुबह अस्पताल में मिस्टर बेहरमैन की निमोनिया से म्रत्यु हो गयी। वह सिर्फ़ दो रोज बीमार रहा। परसों सुबह ही चौकीदार ने उसे अपने कमरे में दर्द से तड़पता पाया था। उसके कपड़े-यहां तक कि जूते भी पूरी तरह से भीगे हुए और बर्फ के समान ठंडे हो रहे थे   उसके कमरे से एक जलती हुई लालटेन एक नसैनी दो-चार ब्रश और फ़लक पर कुछ हरा और पीला रंग मिलाया हुआ मिला। जरा खिड़की से बाहर तो देख-दीवार के पास की उस अन्तिम पत्ती को। क्या तुझे कभी आश्चर्य नहीं हुआ कि इतनी आंधी और तूफ़ान में भी वह पत्ती हिलती क्यों नहींप्यारी सखी यही बेहरमैन की बेस्ट रचना थी जिस रात को अन्तिम पत्ती गिरी उसी रात उसने उसे बनाया था।" 

जीवन में कुछ भी सरलता से नहीं होता… हर काम को शुरू करने कुछ  कठनाइयों का सामना करना पड़ता है... यहाँ तक कि सुबह जल्दी उठने के लिए भी आपको प्रयास करने पड़ते हैं ,,लेकिन जीवन के विषय में एक बहुत ही दिलचस्प तथ्य ये है कि जो कार्य जितना अधिक मुश्किल होता है उसका परिणाम भी उतना ही अधिक संतुष्टि देने वाला और लाभदायक होता है … !! 
मैंने बहुत दिनों से कोई लम्बी पोस्ट नही लिखी ...  व्यस्तता इतनी रही कि उन वन लाइनर्स को लिखने के बाद  ही लगता था कि कहीं मैंने वक़्त तो ज़ाया नहीँ कर दिया...  इतवार का दिन मैं घूमने फिरने और आराम करने के लिए बचा कर रखती हूँ।  हफ्ते भर के काम शनिवार को ही निपटा कर इत्मिनान से अपने मनपसंद गाने सुनती हूँ .. दोस्तों से गप्पे लड़ाती हूँ.... और घूमने जाती हूँ....  आज घर में मेहमान थे तो कहीं भी जाना नही हो पाया  ....दिन यूँही निकल गया.... और शाम हो गई ... फिर लगा कि ये भी क्या इतवार था, आया और चला गया...ये अलग बात है कि दिन भर दोस्तों के फोन आते रहे... मेरे साथ अक्सर ये होता है... जब एक दम फालतू और अकेली होती हूँ तो सारे दोस्त और कजन व्यस्त हो जाते हैं और जिस दिन व्यस्त रहूँ तो एक के बाद एक वो सब फोन किये जाते हैं....  
शुक्रिया सभी का ... जरा सा बीमार क्या हुई दोस्तों को फ़िक्र हो गई ... इतना प्यार और क्या चाहिए जीने के लिए, सच ! लेकिन सच कहूँ कभी कभी बीमार होना भी अच्छा लगता है ...जिन्दगी की व्यस्तताएँ जब ज्यादा बढ़ जाये और दुनियादारी , घरग्रहस्थी के बीच फंस कर तुमसे तुम्हारा दिन का वो एक हिस्सा भी छिन जाये कि तुम्हे लगे कि भागने का वक़्त आ गया ... बिस्तर पर आराम फरमाते हुए लोगो से तुम्हे जलन होने लगे ..और तुम आराम करनेने को तरस जाओ तो समझ लो कि तुम्हारा खुद का शरीर तुम्हारे हक के लिए आवाज़ उठाएगा और  कुछ एक दिनों के लिए तुम मालिक ऐ आज़म की तरह अपने आरामगाह में पहुंचा दी जाओगी ...भाई मैं तो इस मौके का पूरा पूरा फायदा उठाती हूँ ...जाने फिर कब इस तरह आराम फरमाने का मौका मिले ... दिन भर टीवी देखो ...किताबें पढो ...फेसबुक पर जाकर पुरानी पोस्टें पढ़ो ...बिस्तर पर लेटे लेटे सब पर हुक्म चलाओ और वो सब काम करो जो तुम करना तो चाहते थे लेकिन व्यस्तता के चलते कर नहीं पाते थे ...और इन सब चीज़ों से ज्यादा मुझे अच्छा लगता है उसका मासूम और फिक्रमंद चेहरा..शादी के शुरुआती दिनों में जब हम दोनों में से कोई बीमार पड़ता था तो होमिओपैथी के जीनियस और हमारे फॅमिली डॉक्टर शिवदत्त शर्मा अंकल कहा करते थे, do you know wife is half mother and husband  is half father.... तो ये सबसे बेहतरीन मौका होता है मेरे लिए उसको इस तरह केयर करते हुए देखना....तो फिर किस बात की चिंता है ....आराम बड़ी चीज़ है मुँह ढक के सोइए। ....:D:D 
मेरा कैफ़ी साहब से तआर्रुफ़ -मेरा इनके गीतों से शुरुआती परिचय कुछ इस तरह हुआ कि उम्र का वो दौर जब प्रेम को समझने के लिए हम कविताओं फ़िल्मी गानो का सहारा लेते थे , मुझे सुकून देती थी तो इनकी कुछ गज़ले। ये बात उस वक़्त की है जब इंटरनेट नहीं था ,बस अख़बार थे , किताबें थी, मैगज़ीन थीं, एक टेपरिकॉर्डर था जो मेरे पीजी के कमरे में बजता  था,  'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं', 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम' , 'तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम करता चलूँ'। अजीब सुकून मिलता था , सच कहूँ तो  पूरी जिंदगी इन  कुछ ग़ज़लों के आप पास सिमट के रह गयी थी। मैं एक आम लड़की थी जो दुनिया के साथ चलने की कोशिश में लगी थी, कैफ़ी आज़मी जी की उन नज़्मो के सहारे अपनी शामें काटा करती। जिसने भी जिंदगी में इश्क़ किया है उसने कैफ़ी साहब को पढ़ा  होगा , दिल से सुना होगा। इनकी ग़ज़लें उन इश्क़ करने वालो के लिए कुरान की आयतों की तरह थीं, उनके बारे में थीं , उनके आस पास के समाज के बारे में थीं। लगता था जैसे प्रेम को शब्दों का जामा पहना दिया हो किसी ने। हर लफ्ज़ दिल में उतरता हुआ। अचानक ही एक दिन किसी मैगज़ीन में इनकी  नज़्म "औरत" को पढ़ा ,
 उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे....
  बस फिर तय कर लिया कि इनका लिखा सब पढ़ कर ही दम लेंगे।  मैं अक्सर दोस्तों की महफ़िल में 'मकान', 'दायरे' और कभी 'बहरूपणी ' पढ़ती हुई नज़र आने लगी। फिर मुफलिसी के उस दौर में जब महीने के शुरुआत में ही वो छोटी सी तनख्वाह ख़त्म हो जाया करती मैं उस वक़्त भी पैसे बचाकर 'आवारा सजदे' और 'कैफियत'  खरीद लाई. आखिर इन्हें पढ़े बिना चैन कहाँ था? मेरी उन किताबों को मेरे अलावा हमारे पूरे ग्रुप ने पढ़ा, बाद में 'आखिर ए शब' और 'सरमाया' भी पढ़ी।
इक जुनून था, नशा था कैफी आज़मी जी की कविताओं का, उनका लिखा हर शब्द मेरी डायरी में था, किसी अखबार की कटिंग, किसी मैगजीन में छपी, कोई भी कविता मुँह जबानी याद थी , मैं खुद को तैयार करती थी, थिएटर के लिए, कला के लिए, लेखन के लिए, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी, वापस कमरे पर आकर डूब जाती थी , इन्हीं सब में ...या फिर शाम को मौकटेल पीते थे, जिंजर, लेमन दिल्ली हाट पर, या चाय ब्रैड पकौड़ा हौजखास मे, आई आईटी मैस पर,  कई दोस्त थे, कोई बिहार से, कोई लखनऊ, बनारस, हम सब शाम को अपनी दिन भर की भड़ास निकालते थे, कविताएँ, कहानियाँ कोई फिल्म कुछ भी, लड़ जाते थे, लेकिन अगले दिन फिर साथ , आज कैफी आज़मी को सुबह से पढ़ रही हूँ तो वो वक्त याद आ गया, काश उस रोज कैफी आजमी की नज्म पढ़ते हुए हमने उन पलों की कोई तस्वीर ली होती ...

शोषित वर्ग के शायर कैफ़ी साहब -उर्दू के जाने माने शायर एवं गीतकार, पद्म श्री विभूषित जनाब कैफ़ी आज़मी हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किये जाते हैं। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में ये शेर लिख कर कैफ़ी आज़मी साहब ने सबको हैरान कर दिया था।
 "इतना तो जिदगी में किसी की खलल पड़े,
 हँसने में हो सुकून न रोने से कल पड़े, 
जिस तरह हंस रहा हूँ मैं ,पी-पी के गर्म अश्क़ ,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...." 
 उर्दू शायरी के उस सुनहरे दौर में यूँ तो और भी कई शायर हुए लेकिन उर्दू शायरी को सामाजिकता से जोड़ने का श्रेय कैफ़ी आज़मी साहब को जाता है। कैफ़ी आज़मी प्रगतिशील शायरों की अग्रिम कतार के शायर थे। उनके जनवादी शेर उस वक़्त के शोषित और पीड़ित वर्ग के दिल की आवाज बन गए, उनके जख्मों की मरहम बन गए.                  
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप,
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
 हर व्यक्ति जो प्रगतिशील आंदोलनों से होगा , उसने इनके लिखे गीत जरूर गए होंगे , इनकी नज़्मो को पढ़ा होगा। इनसे जुड़ी किताबो और लेखों से पता चलता है कि इनके घर का माहौल भी धार्मिक था लेकिन लखनऊ पहुँचते ही ये कॉमरेड हो गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इनका जुड़ना भी इसी श्रृंखला की शुरुआत थी, जिसमें इन्होंने कलम को शोषण के खिलाफ हथियार बनाया था।  , अपनी नज़्म "औरत " को लिख कर उन्होंने पहली बार उर्दू शायरी के जरिए एक क्रांति की शुरुआत की। चाहें सामाजिक अव्यवस्था का विषय हो, या औरतों की बदहाली की दास्ताँ ,उन्होंने अपनी शायरी में हर उस बात का जिक्र किया जिससे समाज में रंजोग़म था..... 
 इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

फ़िल्मों में कैफ़ी आज़मी साहब का योगदान - उनकी स्क्रिप्ट भी साम्यवाद को दर्शाती हुई नज़र आईं। उनके अलावा कौन लिख सकता है फिल्म गर्म हवा और मंथन जैसी स्क्रिप्ट। उर्दू को फिल्मो में जगह दिलाने का काम भी कैफ़ी आज़मी साहब ने किया।  चाहें हँसते जख्म हो, हकीकत फिल्म के गीत हों या हीर राँझा के डॉयलोग्स हों, उन्होंने हिंदी फिल्मो के लिरिक्स में उर्दू के प्रयोग से एक नई परंपरा को जन्म दिया।  'मैंने एक फूल जो सीने में दबा रखा था  , उसके परदे में तुम्हे दिल से लगा रखा था ,सबसे जुदा  मेरे दिल का अंदाज़ सुनो , मेरी आवाज़ सुनो " यह गीत  पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंतिम संस्कार के दौरान फिल्माए द्रश्य पर रिकॉर्ड किया गया। "कर चले हम फिदा जानो तन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों" लिख कर कैफ़ी साहब ने अपनी लेखनी को अमर कर दिया।  
अपने आखिरी दिनों में कैफ़ी साहब मुम्बई छोड़ कर अपने गाँव रहने आ गए थे, कहते हैं जब इन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ तो ठीक होने के बाद ये बोले कि चलिए इस बहाने जिंदगी पर एक नज़्म तो लिखने को मिली और उस वक़्त लिखी हुई नज़्म का नाम उन्होंने जिंदगी रखा। 10 मई 2002 में ये अपने करोड़ों चाहने वालों को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए।  
मेरा कैफ़ी साहब से तआर्रुफ़ -मेरा इनके गीतों से शुरुआती परिचय कुछ इस तरह हुआ कि उम्र का वो दौर जब प्रेम को समझने के लिए हम कविताओं फ़िल्मी गानो का सहारा लेते थे , मुझे सुकून देती थी तो इनकी कुछ गज़ले। ये बात उस वक़्त की है जब इंटरनेट नहीं था ,बस अख़बार थे , किताबें थी, मैगज़ीन थीं, एक टेपरिकॉर्डर था जो मेरे पीजी के कमरे में बजता  था,  'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो', 'झुकी झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं', 'वक़्त ने किया क्या हसीं सितम' , 'तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम करता चलूँ'। अजीब सुकून मिलता था , सच कहूँ तो  पूरी जिंदगी इन  कुछ ग़ज़लों के आप पास सिमट के रह गयी थी। मैं एक आम लड़की थी जो दुनिया के साथ चलने की कोशिश में लगी थी, कैफ़ी आज़मी जी की उन नज़्मो के सहारे अपनी शामें काटा करती। जिसने भी जिंदगी में इश्क़ किया है उसने कैफ़ी साहब को पढ़ा  होगा , दिल से सुना होगा। इनकी ग़ज़लें उन इश्क़ करने वालो के लिए कुरान की आयतों की तरह थीं, उनके बारे में थीं , उनके आस पास के समाज के बारे में थीं। लगता था जैसे प्रेम को शब्दों का जामा पहना दिया हो किसी ने। हर लफ्ज़ दिल में उतरता हुआ। अचानक ही एक दिन किसी मैगज़ीन में इनकी  नज़्म "औरत" को पढ़ा ,
 उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
ज़िन्दगी जहद में है सब्र के काबू में नहीं
नब्ज़-ए-हस्ती का लहू कांपते आँसू में नहीं
उड़ने खुलने में है नक़्हत ख़म-ए-गेसू में नहीं
ज़न्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आज़ाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे....
  बस फिर तय कर लिया कि इनका लिखा सब पढ़ कर ही दम लेंगे।  मैं अक्सर दोस्तों की महफ़िल में 'मकान', 'दायरे' और कभी 'बहरूपणी ' पढ़ती हुई नज़र आने लगी। फिर मुफलिसी के उस दौर में जब महीने के शुरुआत में ही वो छोटी सी तनख्वाह ख़त्म हो जाया करती मैं उस वक़्त भी पैसे बचाकर 'आवारा सजदे' और 'कैफियत'  खरीद लाई. आखिर इन्हें पढ़े बिना चैन कहाँ था? मेरी उन किताबों को मेरे अलावा हमारे पूरे ग्रुप ने पढ़ा, बाद में 'आखिर ए शब' और 'सरमाया' भी पढ़ी।
इक जुनून था, नशा था कैफी आज़मी जी की कविताओं का, उनका लिखा हर शब्द मेरी डायरी में था, किसी अखबार की कटिंग, किसी मैगजीन में छपी, कोई भी कविता मुँह जबानी याद थी , मैं खुद को तैयार करती थी, थिएटर के लिए, कला के लिए, लेखन के लिए, मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी, वापस कमरे पर आकर डूब जाती थी , इन्हीं सब में ...या फिर शाम को मौकटेल पीते थे, जिंजर, लेमन दिल्ली हाट पर, या चाय ब्रैड पकौड़ा हौजखास मे, आई आईटी मैस पर,  कई दोस्त थे, कोई बिहार से, कोई लखनऊ, बनारस, हम सब शाम को अपनी दिन भर की भड़ास निकालते थे, कविताएँ, कहानियाँ कोई फिल्म कुछ भी, लड़ जाते थे, लेकिन अगले दिन फिर साथ , आज कैफी आज़मी को सुबह से पढ़ रही हूँ तो वो वक्त याद आ गया, काश उस रोज कैफी आजमी की नज्म पढ़ते हुए हमने उन पलों की कोई तस्वीर ली होती ...

शोषित वर्ग के शायर कैफ़ी साहब -उर्दू के जाने माने शायर एवं गीतकार, पद्म श्री विभूषित जनाब कैफ़ी आज़मी हिन्दुस्तान के आलातरीन शायरों में शुमार किये जाते हैं। केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में ये शेर लिख कर कैफ़ी आज़मी साहब ने सबको हैरान कर दिया था।
 "इतना तो जिदगी में किसी की खलल पड़े,
 हँसने में हो सुकून न रोने से कल पड़े, 
जिस तरह हंस रहा हूँ मैं ,पी-पी के गर्म अश्क़ ,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े...." 
 उर्दू शायरी के उस सुनहरे दौर में यूँ तो और भी कई शायर हुए लेकिन उर्दू शायरी को सामाजिकता से जोड़ने का श्रेय कैफ़ी आज़मी साहब को जाता है। कैफ़ी आज़मी प्रगतिशील शायरों की अग्रिम कतार के शायर थे। उनके जनवादी शेर उस वक़्त के शोषित और पीड़ित वर्ग के दिल की आवाज बन गए, उनके जख्मों की मरहम बन गए.                  
ग़ुर्बत की ठंडी छाँव में याद आई उस की धूप,
क़द्र-ए-वतन हुई हमें तर्क-ए-वतन के बाद
 हर व्यक्ति जो प्रगतिशील आंदोलनों से होगा , उसने इनके लिखे गीत जरूर गए होंगे , इनकी नज़्मो को पढ़ा होगा। इनसे जुड़ी किताबो और लेखों से पता चलता है कि इनके घर का माहौल भी धार्मिक था लेकिन लखनऊ पहुँचते ही ये कॉमरेड हो गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से इनका जुड़ना भी इसी श्रृंखला की शुरुआत थी, जिसमें इन्होंने कलम को शोषण के खिलाफ हथियार बनाया था।  , अपनी नज़्म "औरत " को लिख कर उन्होंने पहली बार उर्दू शायरी के जरिए एक क्रांति की शुरुआत की। चाहें सामाजिक अव्यवस्था का विषय हो, या औरतों की बदहाली की दास्ताँ ,उन्होंने अपनी शायरी में हर उस बात का जिक्र किया जिससे समाज में रंजोग़म था..... 
 इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद

फ़िल्मों में कैफ़ी आज़मी साहब का योगदान - उनकी स्क्रिप्ट भी साम्यवाद को दर्शाती हुई नज़र आईं। उनके अलावा कौन लिख सकता है फिल्म गर्म हवा और मंथन जैसी स्क्रिप्ट। उर्दू को फिल्मो में जगह दिलाने का काम भी कैफ़ी आज़मी साहब ने किया।  चाहें हँसते जख्म हो, हकीकत फिल्म के गीत हों या हीर राँझा के डॉयलोग्स हों, उन्होंने हिंदी फिल्मो के लिरिक्स में उर्दू के प्रयोग से एक नई परंपरा को जन्म दिया।  'मैंने एक फूल जो सीने में दबा रखा था  , उसके परदे में तुम्हे दिल से लगा रखा था ,सबसे जुदा  मेरे दिल का अंदाज़ सुनो , मेरी आवाज़ सुनो " यह गीत  पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंतिम संस्कार के दौरान फिल्माए द्रश्य पर रिकॉर्ड किया गया। "कर चले हम फिदा जानो तन साथियो , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों" लिख कर कैफ़ी साहब ने अपनी लेखनी को अमर कर दिया।  
अपने आखिरी दिनों में कैफ़ी साहब मुम्बई छोड़ कर अपने गाँव रहने आ गए थे, कहते हैं जब इन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ तो ठीक होने के बाद ये बोले कि चलिए इस बहाने जिंदगी पर एक नज़्म तो लिखने को मिली और उस वक़्त लिखी हुई नज़्म का नाम उन्होंने जिंदगी रखा। 10 मई 2002 में ये अपने करोड़ों चाहने वालों को छोड़ कर इस दुनिया से विदा हो गए।