रिश्ते पौधों की तरह होते हैं इन्हें समय-समय पर र्स्नेह, धैर्य और त्याग से सींचना पड़ता है। लेकिन मैं ये भी मानती हूँ की रिश्तों में यदि सत्यता है तो वे स्वयं ही निभते चले जायेंगे लेकिन यदि जहाँ ईर्ष्या , अहं और गुस्से ने वहां घर बना लिया तो उस स्थिति में रिश्ते मात्र एक औपचारिकता बन कर रह जाते हैं। हमारे साथ अक्सर ऐसा होता है कि जिन रिश्तों के पीछे हमने अपना सारा जीवन निकल दिया होता है वे ही स्वार्थवश अंत में हमसे विश्वासघात कर बैठते हैं। तो क्या किया जाये उन रिश्तो से मुंह मोड़ लिया जाये या उन्हें माफ़ करके जीवन को आगे बढ़ाया जाये। पर दिल पर लगी हुई चोटें क्या सहज ही भुला दीं जा सकती हैं। हमारे अपने जिन से हम निश्छल, निःस्वार्थ ,प्रेमपूर्ण व्यव्हार की अपेक्षा करतें हैं उनके ही मुंह से कहे हुए कड़वे शब्द क्या आसानी से भुलाये जा सकते है? शायद नहीं। जगजीत सिंह की ग़ज़ल का एक शेर है "गाँठ अगर लग जाये तो फिर रिश्ते हों या डोरी, लाख करें कोशिश खुलने की वक़्त तो लगता है"।
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