रविवार, 23 मार्च 2014

कॉमिक्स के दिन

                                




बच्चों  के एक्जाम्स क्या ख़त्म हुए  मानो मेरा सरदर्द शुरू हो गया । मुद्दा वही एक कि आखिर फ्री टाईम  में करें तो क्या करें ? एक के बाद एक फरमाइशों कि लिस्ट  आने लगीं।  मुझे प्ले-स्टेशन कि नई  सीडी चाहिए, मुझे डांस क्लासिस ज्वाइन करनी हैं, मेरे लिए बार्बी की एसेसरीज़ का सेट चाहिए, वगैरह वगैरह। खूब भागम- भाग के बाद भी बच्चे संतुष्ट नहीं होते।  मैं अपने बचपन को याद करने लगी। डिमांड्स हमारी भी हुआ करती थीं ,लेकिन ऐसी नहीं कि जिन्हें पूरा करते करते माँ बाप का मंथली बजट  ही गड़बड़ा जाये। फिर हमारे टाइम पास करने के साधन भी लिमिटिड ही हुआ करते थे। जैसे लूडो, सांप-सीढ़ी , कैरम, दूरदर्शन और सबसे ज्यादा रोचक चीज़ यानि कि कॉमिकस। मझे याद  है कि कैसे मैं और मेरे भाई नई-नई कॉमिक्स पड़ने के लिए पागल से रहते थे। चम्पक, नंदन, चाचा चौधरी, फैंटम ,चंदा मामा, मोटू-पतलू , और भी न जाने  कितने नामों से कॉ मिक्स  आया  करती थीं उस वक़्त। जिन्हे पड़ने में हम इतने खो जाया करते थे कि समय कब कट जाता था पता ही नहीं चलता था। उस वक़्त भी वीडीओ गेम्स थे लेकिन कॉमिक्स हर बच्चे को आसानी से उपलब्ध होने वाली मनोरंजन की  सबसे लोकप्रिय चीज़ थी। बच्चो के अंदर रीडिंग हैबिट को डेवलप करने का ये एक बहुत ही सरल और रोचक  माध्यम हुआ करता था। टीवी पर आने वाले ढेरों कार्टून कैरेक्टर्स  की तरह ही कॉमिक्स के वो पात्र हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते थे।. बच्चे उन पात्रों के लिए कितने दीवाने रहते थे।
                                        सच में इस सेटेलाइट चैनल्स और हाई फाई गेम्स के समय में कॉमिक्स का अस्तित्व पूरी तरह ख़त्म सा ही हो गया है। मैं कॉमिक्स के उन पात्रों को बहुत ही मिस करती हूँ, जो उस वक़्त मुझे बिलकुल सच्चे लगते थे। आज मैं बच्चो के लिए किताबें लेने बाज़ार निकलती हूँ तो बुक स्टॉल्स पर केवल कुछ गिनी चुनी ही कॉमिक्स नज़र आतीं हैं।  मनोरंजन के साधन जितने ही बढ़ते जा रहे हैं हमारे बच्चे उतने ही असंतुष्ट होते जा रहे हैं ,शायद बच्चो के अंदर के भोलेपन  को सहेजे रख कर उन्हें स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करने का कॉमिक्स से अच्छा जरिया और कोई हो ही नहीं सकता है। 

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