मंगलवार, 17 सितंबर 2013


सचमुच रंगमंच ही तो है जीवन, मैं देख रही हूँ शांत भाव से। पता नहीं कहाँ खोयी हुई सी। तुमने ढेरों अपेक्षाएं डाली हुयी हैं मुझ पर। और मैं कुछ भी कर पाने में असमर्थ। फिजिकली प्रेजेंट एंड मेंटली एब्सेन्ट । पर क्यों , जीवन जैसा है हम खुद वैसे ही क्यों नहीं हो जाते। बड़ी मुश्किल होती है सामंजस्य बैठाने में । तुम अक्सर कहते हो सामंजस्य बिठाओ पर मैं तुम्हें कैसे बताऊँ मैं असमर्थ हूँ ऐसा कर पाने में । तुम बाहर की दुनिया से हाथ बड़ा कर खींचना चाहते हो मुझे वहां ,पर मैं तुम्हें क्या बताऊँ मैं किस कदर उलझी हुई  हूँ  अपने अन्दर की दुनिया में ।ढेरों काम हैं मुझे अभी वहां पर। बहुत शोर भी है। कैसे समझाऊँ तुम्हें अतीत के कितने हिसाब लगाने हैं । क्या खोया क्या पाया गुना भाग सब करना है अभी। और तुम खींच रहे हो मुझे वहां से । तुम ही बताओ दो नावों में पैर कैसे रखूँ मैं । इधर जाऊं या उधर जाऊं । कुछ समझ नहीं आता । सब कुछ फैला बिखरा सा है। टूटे सपनो के कितने टुकड़े  हैं जो साफ करने हैं । कितनी यादें है जिन्हें सलीके से लगाना  है एक तरफ दिमाग में , थोडा पीछे की तरफ़। कोशिश करती हूँ कि निकल जायें पूरी तरह दिमाग से ,लेकिन निकलती ही नहीं, नागफनी के पौधे की तरह बढ़ती ही जातीं  है। अन्दर ही अन्दर चुभती है। बहुत मुश्किल हैं इन यादों को लेकर जीना । थोडा वक़्त दो मुझे इन्हें हटा दूं फिर तुम्हारे सारे काम कर दूंगी। वो जरूरी डाक्यूमेंट्स जो मैं रख कर भूल गयीं हूँ शायद वो भी मिल जायेंगे ,तुम्हारा सारा जरूरी सामान जो मैं ठीक से नहीं रख पाती  हूँ ,वो भी संभाल पाऊँ।  पर अभी थोडा समय लगेगा मुझे अपने ख्यालों और वास्तविकता की दुनियां में तालमेल बिठाने में । निकलना खुद मैं भी चाहती हूँ इस भटकाव से लेकिन क्या करूं  निकल नहीं पा रही । कोशिश करती हूँ तुम्हारी अपेक्षाओं  पर खरी उतरने की, तुम्ही बताओ  क्या मैं फेल हो गयी हूँ जिन्दगी के इम्तिहान में । क्या मैं तुम्हारी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाऊँगी । बस ये जो शोर सा है वो थम जाये फिर सब कर पाऊंगी जो तुम चाहते हो , जिम्मेदारियां संभालना, कर्तव्यों को निभाना, वगेरह ,वगेरह। सच मैं खुद चाहती हूँ , कि  यादो की इस आपाधापी से बाहर आऊं ,भविष्य को कोरे कैनवास  की तरह नए रंगों से सजाऊं  पर हो नहीं पाता । ये कुछ काले सफ़ेद से रंग हैं जो फ़ैल गए हैं मन की किताब पर, बहुत गहरे दाग है छूटते ही नहीं ।