सोमवार, 9 जुलाई 2012


 लो आ गयी बारिश.......आओ  बरखा रानी बहुत दिनों से तुम्हारा इन्तजार था।अब आई हो तो थोडा रुक कर ही जाना। सबको भिगो देना ,कोई बाकी  न रह जाये। बारिश फिर आ गई । बारिश न हो तो मुसीबत और अगर हो तब भी, मेरे साथ एक परेशानी ये है कि  बाहर अगर बारिश हो रही हो तो मुझसे घर के अन्दर नहीं बैठा  जाता। किसी चीज़ में दिल नहीं लगता।पानी से मेरा बचपन से ही लगाव रहा है, जहाँ मेरा जन्म हुआ , पली बढ़ी  उस जगह भी पास ही  नदी और तालाब थे, तो एक तरह से शुरू से ही पानी से कुछ रिश्ता सा रहा है मेरा।
पानी मुझे हर रूप में पसंद है, बहता हुआ पानी, तेज बौंछारों  के साथ आता  हुआ पानी, मकानों की छतों  से बहता हुआ,  दुकानों के टीनशेड से टपकता पानी, सड़कों  और गलियों में बहता पानी और उसमे उछल--कूद मचाते  हुए नहाते बच्चे,  भीगे हुए पेड़-पक्षी, पत्तो से टपकता पानी  ,गीली ताजी  हरी घास , और भी जाने क्या--क्या। कितना सुन्दर द्रश्य होता है। सब कुछ कवितामय हो जाता है। वैसे भी बारिश  पर कोई कविता क्या लिखे ,बारिश खुद अपने में एक कविता है। ये सब देखने के लिए किसी बच्चे की तरह मन मचल उठता है और मैं अपनी चाय का कप लेकर बाहर बरामदे में आ बैठती  हूँ। बहुत सोचती हूँ की कभी किसी कुशल गृहणी की तरह प्याज और मिर्ची के पकौड़े बना कर चाय के साथ सबको सर्व कर सकूं, लेकिन ये काम अपनी कुक के जिम्मे छोड़ कर मैं जगजीत सिंह की गज़लें सुनने में व्यस्त हो जाती हूँ।  बचपन में खूब भीगती थी मैं बारिश में। याद  है मुझे  स्कूल से लोटते हुए  रिक्शे में भीगते हुए आना, कॉलेज  से लौटते हुए भी मुझे याद  नहीं पड़ता कि  कभी मैंने अपनी स्कूटी रोक कर बारिश से बचने की कोशिश की हो। चेहरे पर पानी के तेज छीटें   सहते हुए तरबतर घुटनों तक पानी में स्कूटी चलाती थी। बारिश में तो अब भी कभी फंस जाती हूँ शोपिंग से लौटते में या बच्चो को स्कूल से लेकर आते  वक़्त , मगर अब जहाँ तक हो सके भीगने से बचती हूँ। डर लगता है कि अगर मैं बीमार पड़ गई  तो घर  का सारा सिस्टम मिस-मेनेज हो जायेगा। पर फिर भी हलकी बोछारों  में भीगना आज भी मुझे बहुत पसंद है, खासकर  बारिश रुकने पर अक्सर गीली सड़कों पर टहलने हुए निकल जाना।



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