गुरुवार, 28 जून 2012


रोज शाम होते ही आ बैठती  हूँ,
 बालकनी  में ,
अपने हिस्से के आसमान से
थोड़ी हवा की उम्मीद में,
सड़क से उडती धूल ,
 रोज रेलिंग पर जम जाती है ,
पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि  ,
साफ किया हो मैने उसे,
शाम होते ही ,
अपनी कोहनियाँ जमाये बैठ  जाती हूँ वहीं ,
और रोज वो मिटटी,
 मेरी  कोहनियों पे लग जाती है,
फिर भी रोक नहीं पाती  हूँ खुद को,
एक अजीब सी बैचैनी होती है,
उस शाम को देख लेने की,
डूबता हुआ सूरज,
पार्क में खेलते बच्चे,
घर वापिस लौटते लोग,
जाने क्यूँ सुकून सा मिलता है,
एक प्याली चाय के साथ,
उस ढलती हुयी शाम को देखने में।

 
माई माइंड इज  इन दे स्टेट ऑफ़ रेस्ट .......अगर फेसबुक के रिलेशनशिप स्टेट्स की तरह माइन्ड का भी कोई मेंटल  स्टेटस होता तो मैं यही लिखती।आजकल दिमाग वाकई फुर्सत में है । तभी  तो इतने सारे फालतू थोट्स आ रहे हैं दिमाग में।बहुत कुछ लिख रही हूँ, दिमाग फलसफे बिखेरता जा रहा है और मेरी कलम उनको लपेट कर कागज पर सजाती जा रही है। वर्ना कुछ वक्त  पहले तक  तो ये स्थिति थी कि  इस हद तक व्यस्तता हो गयी थी कि  हाथ इस कदर काम करते रहते थे कि दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था। दिमाग बस घड़ी  की सुइयों से चिपक कर ही रह गया था।कहीं एक मिनट  भी इधर से उधर न हो जाये ।नहीं तो पता नहीं क्या हो जाये।अब कुछ दिनों से सुकून सा है।हालाँकि काम तो अब भी वही हैं पर अब मैने काम को लेकर दिमाग पर एक्स्ट्रा प्रेशर क्रिएट  करना बंद कर दिया है।जैसे दिल-ए -नादाँ को कुछ इस तरह से गुस्सा आ गया हो कि  उसने दिमाग से कह दिया हो कि  बहुत हो गया यार अब तू  चुप बैठ ,इट्स माई टर्न  ।और दिल वो सब कर रहा हो जो वो बहुत दिन से कर न पाया हो।इधर कुछ दिनों से मेने म्यूजिक सिस्टम पर जमी धूल भी साफ कर दी है।कुछ नई  गज़लो का कलेक्शन भी ले आई हूँ सुनने के लिए ।शायद वही सब सुन-सुन कर मूड कुछ शायराना सा हो गया है।इन दिनों अपना मनपसंद लिटरेचर  भी पढ़  रही हूँ।उसी का नतीजा है कि  लिखने की भूख बढ़ती ही जा रही है।वैसे भी जब सोया हुआ लेखक जागता है तो कुछ पन्ने जाया हुआ ही करते हैं।
 इसलिए पूरा -पूरा  फायदा उठा लेना चाहती हूँ इस समय का।फिर न जाने मेरे अन्दर का लेखक कब जागेगा ? दो तरह के लोग लिखते हैं। एक जो बहुत कुछ लिखते पढ़ते रहते है और लिखने की कला में पारंगत होते हैं और एक वो जो न ज्यादा लिखते हैं न पढ़ते हैं बस जी हल्का करने के लिए थोडा बहुत लिखते  हैं।में शायद दूसरी श्रेणी में ति हूँ। डिग्रियों को अलग हटा कर देखें तो पढने लिखने का आपकी खुद के लेखन से कोई खास सम्बन्ध तो होता नहीं है हाँ भावनाओं का भंडार होना चाहिए। कभी कभी तो अपने लेखन को देख कर लगता है की जैसे अपने अन्दर की घबराहट को दूसरों के साथ साझा करने की नादानी कर रही हूँ।और पढने वाले भी फिर ऐसी ऐसी नसेहतें दे कर जाते हैं की क्या कहूं, ऐसा लगता है की मैं  दुनिया भर के psychitrist  और spritua healers के लिए एक रोचक सब्जेक्ट हूँ। अभी हाल ही जो कुछ मैंने लिखा है उसमे लगता है जैसे  दर्द ही दर्द है ,तो चलिए अब की बार कुछ नया लिखूंगी पोजिटिविटी भरा। लेकिन मैं  कोई मोटिवेशन पर लिखने वाली लेखक तो हूँ नहीं।जो दुखी दिलो को  जीने की नई होप दिखाये।में तो वो लिखती हूँ जो सच है, जीवन का सच।पर सच को एक्सेप्ट करना थोड़ा मुश्किल होता है।लकिन फिर भी बेटर ट्राई इट  नेक्स्ट टाइम।