रविवार, 21 अक्तूबर 2012









माँ,
जब भी मैं तुम्हारी प्रतिमा को देखती हूँ तो ,
एक प्रश्न उठता है मन में,
तुम शक्ति का स्वरूप हो ,
खडग,त्रिशूल, गदा धारण किये,
सिंह पर सवार  हो,
पुरुष तुम्हारे आगे शीश झुकाते हैं,
लेकिन तुम्हारी ही जैसी तुम्हारी बेटियाँ
फिर क्यों इतनी कमजोर हैं,
दबी हुई ,डरी हुई ,
पुरुषों के आधीन  रह कर ,
जीवन जीने को  मजबूर,
हर रोजतुम्हारी कितनी ही बेटियाँ,
 दबी हुई  चीखों
और सिसकियों के साथ,
चली जाती हैं संसार से,
और जाने कितनी  रह जाती हैं अजन्मी
माँ की कोख में ही,
तुम माँ हो ,
तो क्यों नहीं देख पाती ,
 हमारी पीड़ा हमारा दुःख,
क्यों बनाया है तुमने हमें ,
इतना निर्बल इतना विवश ,,
कब करोगी माँ,
हमारी प्रार्थना स्वीकार ,
कब  दोगी हम सब को
अपनी शक्ति का थोड़ा-थोड़ा  अंश,
इस पुरुष प्रधान संसार में
जीवन जीने का अधिकार।






रविवार, 2 सितंबर 2012


अब के हम बिछड़े  तो शायद फिर ख़्वाबों  में मिले।...... क्या हमने कभी सोचा था कि  ये  बात  गलत साबित हो जाएगी। अब वो जमाना नहीं रहा कि  प्यार करने वाले लोग एक बार बिछड़ते  थे तो फिर कभी नहीं मिल
पाते थे। फेसबुक और ऑरकुट  जैसी साइट्स  ने हमारे जीवन से विरह रस को तो जैसे स्टीम इंजन की तरह से बिलकुल ही ख़तम कर दिया है। आज बेशक आपके चाहने वाले इन्सान की शादी हो जाये, वो सात  समुन्दर पार चला जाये, लेकिन फिर भी आप घर बेठे देख सकते हैं कि  उसने अपने बेटे की 10वी  सालगिरह पर किस तरह का केक बनवाया था, या हर साल वो छुट्टियों में कहाँ होलीडे मानाने जाता है।अब दिलों के पुराने जख्म भरने लगें हैं। बहुत फर्क आ  गया है 20 साल पहले और आज की दुनियां में ,विज्ञानं तरक्की कर रहा है, और उसके साथ लोगो की सोच में और उनके जीवन के प्रति नज़रिए में भी बदलाव आता  जा रहा है। अब दूरियां कम हो गयी है, लोग एकदूसरे से  हर वक़्त संपर्क में रहते हैं। प्रेम के विषय में बात करें तो  मुझे लगता है, जब से इन्टरनेट ने हमारे जीवन में जगह बनाई  है तब से विरह रस पर गीत और कविता लिखने वाले लोगो के लिए तो कुछ बचा ही नहीं। वर्ना प्रियतम की याद  में तरसती हुई  नायिका पर गीत लिखना लेखकों की पहली पसंद हुआ करता था । आज जहाँ सेकेंडो में एक दूसरे तक सन्देश पहुंचाया  जा सकता है, वहीँ पहले चिट्ठी लिख कर भेजने के हजारों तरीके हुआ करते थे। कभी कबूतर के द्वारा अपनी बात अपने प्रिय तक पहुंचाना , या कभी  चाँद, बादल या हवा से कहना कि वो प्रियतम तक उसके दिल की बात पहुँच दे। और जब दूर देश से किसी के लिए कोई पत्र आता था तो उस आनंद की अनुभूति का तो क्या ही कहना। क्या हमारी आने वाली पीढियाँ उस  आनंद का  कभी अनुभव कर पाएंगी। एक छोटे  से कागज पर अपनी भावनाओं को सुन्दर शब्दों में पिरो कर जब अपने किसी प्रिय तक पहुँचाया जाता था तो केवल समाचारों  का आदान-प्रदान नहीं होता था ,बल्कि एक दूसरे के प्रति अपनी भावनाओ की सुन्दर अभिव्यक्ति की जाती थी। आज जब विज्ञानं प्रगति कर रहा है तो संपर्क के माध्यम तो बढ़ रहे हैं लेकिन शब्द कम होते  जा रहे हैं। भावनाओं का आदान प्रदान इतना सरल हो गया है कि  उनका महत्त्व ही कम हो गया है। संबंधो में औपचारिकता कम होती जा रही है और वर्चुअल फ्रेंड्शिप का चलन बड़ता जा रहा है। लेकिन ये वर्चुअल  फ्रेंड्स केवल उस वर्चुअल संसार तक ही सीमित रहते है। उससे बाहर निकलते ही हम  फिर संबंधो को पहले की तरह से जीने लगते हैं।





मंगलवार, 28 अगस्त 2012


खूंटे से बंधी गाय  को देखा है कभी?
निःशब्द  निर्विरोध
करती रह्ती है भरण  पोषण ,
अपने बछड़ो का ही नहीं
दूसरों के बच्चों का भी,
भूखे पेट रह कर भी
लाठियां सह कर भी
नहीं करती प्रतिकार,
क्योंकि उसे मालूम है कि
उसका जन्म ही हुआ है 
 दूसरों के लिए,
कहलाती  है माता
पूजी जाती है यदा कदा ,
उपमाएं दी जाती हैं उसे 
देवतुल्य होने की ,
लेकिन जहाँ  दूध देना बंद करती है
तो छोड़ दिया जाता है उसे सडकों पर
 आवरा पशु की तरह।


सोमवार, 13 अगस्त 2012

दिमाग फैक्ट्री में ताला डाल दो

कभी कभी ऐसा लगता है की दिमाग विचारों की एक फैक्टरी  है जिसमें से हर रोज बेतहाशा हजारों विचार निकलते रहते हैं।बहुत कोशिश करती हूँ खुद को व्यस्त रख कर दिमाग के प्रोडक्शन  हाउस से होने वाली विचारों की इस अनलिमिटिड  सप्लाई को रोकने की लेकिन ये है कि  रूकती ही नहीं। और विचार भी ऐसे जो सिर्फ जाने के लिए नहीं आते , जाते-जाते मुझे इतना उलझा जाते  हैं कि  फिर किसी और काम में ध्यान केन्द्रित ही नहीं कर पाती ।
बड़ा ही हरफनमौला है ये दिमाग भी। कभी विश्लेषण करने बैठती  हूँ तो पाती हूँ कि  हर तरह का मसाला है इसके पास। भूत ,भविष्य और वर्तमान की चिंता, कुछ खो देने का डर ,सब कुछ होते  हुए भी असंतुष्टि का भाव,जीवन की क्ष णभ्रन्गुरता  का चिंतन , और भी न जाने क्या-क्या।सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि जीवन में हर चीज़ का समाधान है लेकिन खुद अपने विचारों के चक्रव्यूह से जूझने का कोई हल नहीं है।
बाकि सब परेशानियाँ क्या कम थी जो इन्सान इन विचारों की रोलरकोस्टर राइड में अटक कर चकरघन्नी बनता रहे। सुबह उठने से लेकर रात को नींद आ जाने तक लगातार 24/7 का प्रोडक्शन हाउस है।
 आप डिमांड करते हैं और ये सैकिंड से भी कम समय में आपका आर्डर रेडी कर देता  है। कभी किसी हारे हुए खिलाडी की तरह नकारात्मक विचारों से डराता है तो कभी किसी बुद्धिजीवी प्रवचनकर्ता की तरह सकारात्मक विचारों से आपका  मनोबल बढाता है। कभी प्रेम के तो कभी नफरत के, कभी इर्ष्या  और कभी घबराहट के ,और भी न जाने कितने तरह के विचारों का पूरा स्टॉक है इसके पास। रा -मटेरियल के लिए ये  जीवन की छोटी-बड़ी, नयी-पुरानी  यादों का फुल स्टॉक कर के रखता है जिनसे विचारों का अनलिमिटिड प्रोडक्शन  होता रहे। और एक बार जब माल रेडी  हो जाये तो हजारों विचार बाहर आने के लिए क़तार में खड़े हो कर मचलने लगते हैं। बाहर आकर कुछ देर प्रश्नसूचक मुद्रा में खड़े होकर फिर कहीं खो जाते हैं। कभी-कभी तो बाहर आने के लिए वो आपस में इतने उलझ जाते हैं कि  लगता है  दिमाग में विचारों का घमासान युद्ध चल रहा हो। और ऐसे  में अगर भूले-भटके मुझे कोई ऐसा मिल जाता है जिससे मै  इन्हें बाँट सकूं तो भागते हुए ज़बान से ऐसे फिसलते हैं जैसे कह रहे हों पहले मैं पहले मैं। वाह रे दिमाग कुछ तो ऐसा देता जो किसी काम का होता ,देता है भी तो ऐसी चीज़ जो कोई लेना ही नहीं चाहता, फुल्ली -फालतू आइटम ।
सबसे कट कर इन विचारों से खेलना  बचपन से मेरा पसंदीदा शौक रहा है ,पर ये तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि  एक समय ऐसा भी आएगा कि ये विचार मुझ पर इतने हावी हो जायेंगे कि मैं इनसे छुटकारा पाने का उपाय सोचना  शुरू कर दूँगी।बिलकुल ऐसे ही जैसे कोई बिन बुलाया मेहमान आपके घर पर कब्ज़ा कर के बैठ  गया हो।अब तो बस जी चाहता  है कि इस दिमाग की फैक्टरी में कुछ दिन के लिए ताला डाल दूं और सुकून से रहूँ ।

बुधवार, 11 जुलाई 2012

तुम्हारे न होने का अहसास ,
तुम्हारे होने के एहसास से कहीं बेहतर है,
उसमें  कम से कम,
बिछड़  जाने का डर तो नहीं है,
सुकून है तुम्हारे न होने में,
क्योंकि जब तुम होते हो,
 तो भी कहाँ होते हो,
एक सुकून सा देता है,
तुम्हारा न होना,
सत्य असहनीय होता है ,
मुझे पसंद है,
कल्पनाओ की स्वछंद  उड़ान ,
तुम्हारे न होने पर भी,
होने का गुमान।

सोमवार, 9 जुलाई 2012


जिन्दगी आज  तू खामोश क्यों है,
कुछ तो सुना ,
कुछ नया,कुछ अनसुना,
कोई सुने न सुने,
में हूँ यहाँ,
इस गुफ्तगू में ही बता ,
क्या है तेरे दिल में छुपा,
हो दर्द या कोई गिला,
 या कोई ख्वाब हो अनकहा,
जिसे भूल बैठी हूँ आज मैं ,
 कोई वादा  अगर हो तुझसे किया,
जो तू चाहती थी वो नहीं हुआ ,
 जो तू सोचती थी वो नही मिला ,
मुझे है पता तेरे दर्द का ,
तू नहीं करेगी कभी गिला  ,
मगर हो सके तो मुझे बता ,
तेरे दिल में क्या है छुपा हुआ,
कुछ  तो सुना ,
मैं हूँ यहाँ।




 लो आ गयी बारिश.......आओ  बरखा रानी बहुत दिनों से तुम्हारा इन्तजार था।अब आई हो तो थोडा रुक कर ही जाना। सबको भिगो देना ,कोई बाकी  न रह जाये। बारिश फिर आ गई । बारिश न हो तो मुसीबत और अगर हो तब भी, मेरे साथ एक परेशानी ये है कि  बाहर अगर बारिश हो रही हो तो मुझसे घर के अन्दर नहीं बैठा  जाता। किसी चीज़ में दिल नहीं लगता।पानी से मेरा बचपन से ही लगाव रहा है, जहाँ मेरा जन्म हुआ , पली बढ़ी  उस जगह भी पास ही  नदी और तालाब थे, तो एक तरह से शुरू से ही पानी से कुछ रिश्ता सा रहा है मेरा।
पानी मुझे हर रूप में पसंद है, बहता हुआ पानी, तेज बौंछारों  के साथ आता  हुआ पानी, मकानों की छतों  से बहता हुआ,  दुकानों के टीनशेड से टपकता पानी, सड़कों  और गलियों में बहता पानी और उसमे उछल--कूद मचाते  हुए नहाते बच्चे,  भीगे हुए पेड़-पक्षी, पत्तो से टपकता पानी  ,गीली ताजी  हरी घास , और भी जाने क्या--क्या। कितना सुन्दर द्रश्य होता है। सब कुछ कवितामय हो जाता है। वैसे भी बारिश  पर कोई कविता क्या लिखे ,बारिश खुद अपने में एक कविता है। ये सब देखने के लिए किसी बच्चे की तरह मन मचल उठता है और मैं अपनी चाय का कप लेकर बाहर बरामदे में आ बैठती  हूँ। बहुत सोचती हूँ की कभी किसी कुशल गृहणी की तरह प्याज और मिर्ची के पकौड़े बना कर चाय के साथ सबको सर्व कर सकूं, लेकिन ये काम अपनी कुक के जिम्मे छोड़ कर मैं जगजीत सिंह की गज़लें सुनने में व्यस्त हो जाती हूँ।  बचपन में खूब भीगती थी मैं बारिश में। याद  है मुझे  स्कूल से लोटते हुए  रिक्शे में भीगते हुए आना, कॉलेज  से लौटते हुए भी मुझे याद  नहीं पड़ता कि  कभी मैंने अपनी स्कूटी रोक कर बारिश से बचने की कोशिश की हो। चेहरे पर पानी के तेज छीटें   सहते हुए तरबतर घुटनों तक पानी में स्कूटी चलाती थी। बारिश में तो अब भी कभी फंस जाती हूँ शोपिंग से लौटते में या बच्चो को स्कूल से लेकर आते  वक़्त , मगर अब जहाँ तक हो सके भीगने से बचती हूँ। डर लगता है कि अगर मैं बीमार पड़ गई  तो घर  का सारा सिस्टम मिस-मेनेज हो जायेगा। पर फिर भी हलकी बोछारों  में भीगना आज भी मुझे बहुत पसंद है, खासकर  बारिश रुकने पर अक्सर गीली सड़कों पर टहलने हुए निकल जाना।